11 वी सदी में इस वाव का निर्माण मुलाराजा के बेटे भीमदेव प्रथम की याद में उनकी विधवा पत्नी उदयमती ने करवाया था। जिसे बाद में करणदेव प्रथम ने पूरा किया।
गुजरात के पाटन (पहले 'अन्हिलपुर' के नाम से जाना जाता था) जिले में स्थित इस बावड़ी के निर्माण में मारु-गुर्जर स्थापत्य शैली का इस्तेमाल बहुत ख़ूबसूरती से किया गया है।
पाटन जिले में चूंकि बारिश कम होती है, इसीलिए सरस्वती नदी के किनारे रानी उदयमती ने इस वाव के निर्माण की योजना बनाई ताकि बरसात के समय इस वाव में जमा पानी बाद में लोगों के काम आये।
कुछ समय के इस्तेमाल के बाद सरस्वती नदी ने इसे पूरी तरह से जलव्याप्त कर दिया था और सैकड़ों सालों तक नदी में आने वाली बाढ़ की वजह से ये बावड़ी धीरे-धीरे कीचड, रेत और मिट्टी के नीचे दबती चली गयी।
साल 1980 तक यह बावड़ी पूरी तरह से पानी से ही भरी हुई थी। कुछ समय बाद जब आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया ने इसे खोज निकाला था और उस समय इस बावड़ी की हालत बहुत ख़राब थी।
रानी की वाव तकरीबन 64 मीटर लम्बी, 27 मीटर गहरी और 20 मीटर चौड़ी है। यह बावड़ी अपने समय की सबसे प्राचीन और सबसे अद्भुत निर्मितियों और कलाकृतियों का बेहद सुन्दर उदहारण दर्शाती है।
बावड़ी में बनी बहुत सी कलाकृतियों में ज्यादातर भगवान विष्णु से सम्बंधित है। भगवान विष्णु के दशावतार के रूप में ही बावड़ी की मूर्तियों का निर्माण किया गया है।
रानी की वाव में आज भी ऐसे कई आयुर्वेदिक पौधे देखें जा सकते है जिनका इस्तेमाल प्राचीन समय में बहुत गंभीर बीमारियों के उपचार के लिए किया जाता था।
बावड़ी के नीचे एक छोटा द्वार भी है जिसके भीतर 30 किलोमीटर की एक सुरंग भी है, मगर फिलहाल इस सुरंग को मिट्टी और पत्थरों से ढक दिया गया है।
सात मंजिला इस वाव की दीवारों और स्तंभों पर सैकड़ों नक्काशियां की गयी है। सात तलों में विभाजित इस सीढ़ीदार कुएं में नक्काशी की गयी 500 से भी अधिक बड़ी मूर्तियां और हजारों की संख्या में छोटी मूर्तिया है।
साल 2014 में रानी की वाव को यूनेस्को ने विश्व विरासत में शामिल किया है और भारत सरकार ने रानी की वाव को साल 2018 में हलके बैगनी रंग की 100 रूपये की नोट पर इस विश्व धरोहर की तस्वीर को सम्मान दिया है।