मुगले-ए-आजम – इस निर्देशक को 14 साल लगे एक खूबसूरत फिल्म बनाने में

बॉलीवुड में आपने कई ऐसे निर्देशकों के बारे में सुना होगा जो फ़िल्में बनाने में अपने जूनून के आगे कुछ और नहीं देखते है। मगर आज हम आपको जिस निर्देशक के बारे में बताने जा रहे है उन्होंने अपने जीवन की एकमात्र सफल और खूबसूरत फिल्म मुगले-ए-आजम बनाने में जुनूनीयत की सारी हदें पार कर दी थी।
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के. आसिफ (फिल्म मुगले-ए-आजम के निर्देशक)

साल 14 जून 1922 को उत्तर प्रदेश के ‘इटावा’ में जन्मे ‘कमरुद्दीन आसिफ’ यानी के. आसिफ साहब एक गरीब घर में पैदा हुए थे। इटावा में ही केवल 8 वीं तक की पढ़ाई करने वाले आसिफ पढ़ाई के दौरान के कपडे सिलने का काम किया करते थे। बड़े लोगों के कपडे सिलने वाले आसिफ ने बड़े सपने भी देखना शुरू कर दिया था, जिसके चलते साल 1942 में वो मुंबई आ गए। के आसिफ उस समय के मशहूर अभिनेता नसीर के भतीजे थे। निर्देशन में रुचि रखने वाले के. आसिफ ने साल 1945 में ‘फूल’ नामक फिल्म का निर्देशन किया, जो बॉक्स ऑफिस पर सफल भी रही।
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फिल्म ‘फूल’ के बाद के. आसिफ ने मुगलिया आन-बान और शान को परदे पर उतारने का ख्वाब पूरा करने के लिए मुगले-ए-आजम फिल्म को बनाने का फैसला किया। फिल्म मुगले-ए-आजम को बनाने के आसिफ ने 15-20 लाख रुपयों का बजट बनाया था। जहां उस समय एक फिल्म बनाने के लिए करीब 3-5 रुपये काफी होते थे वहीँ इस फिल्म के बनते-बनते करीब 1.5 करोड़ रुपये खर्च हो गए थे। जो बहोत ही ज्यादा थे।
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फिल्म मुगले-ए-आजम को आसिफ अपने दोस्त शिराज अली के साथ मिलकर बना रहे थे और फिल्म में चंद्रमोहन और नरगिस को कास्ट किया गया था। साल 1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन की वजह से फिल्म के निर्माता शिराज अली, पकिस्तान चले गए। जिसके बाद फिल्म मुगले-ए-आजम का काम रुक गया और इसी दौरान फिल्म में अभिनेता के तौर पर लिए गए चंद्रमोहन का दिल का दौरा पड़ने मृत्यु हो गयी थी। साल 1950 में शापूरजी पलोनजी ने फिल्म प्रोडूस करने के साथ नए कलाकारों के साथ फिल्म शुरू करने का फैसला किया।
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फिल्म के लिए के. आसिफ ने हर एक तरफ से बारीकी से काम किया था। फिर चाहे वो फिल्म का संगीत हो या फिर फिल्म का सेट। इस फिल्म के लिए संगीत मशहूर संगीतकार नौशाद ने दिया था। फिल्म मुगले-ए-आजम के एक गाने के लिए के. आसिफ ने गुलाम अली साहब को गवाने की सोची, मगर गुलाम अली साहब ने फिल्मों के लिए गाने से मना कर दिया और आसिफ को लाख समझने के बावजूद नहीं मानने पर एक गाना गाने के लिए २५ हजार रुपये मांग लिए थे ताकि के आसिफ अपना इरादा बदल दे। उस समय जहां लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी जैसे बड़े गायक एक गाने के ३००-४०० रुपये लिया करते थे, वहीँ के. आसिफ ने गुलाम अली साहब को एक गाने के २५ हजार रुपये देना तय किया और मांग करने पर तुरंत १० हजार रुपये एडवांस दे दिए थे।

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इस फिल्म में पहली बार ऐसा हुआ था कि किसी सीन को दर्शाने के लिए ‘इंडियन आर्मी’ के हाथी, घोड़ों और सैनिकों का इस्तेमाल किया गया था। फिल्म में सलीम और अकबर के बीच हो रहे युद्ध को शूट करने के लिए के. आसिफ ने उस समय के ‘इंडियन डिफेन्स मिनिस्टर’ कृष्णा मेनोन से बकायदा इजाजत ली थी। फिल्म में फ़िल्मायें गए युद्ध के दृश्यों के लिए २००० ऊँट, ४००० घोड़े और ८००० पैदल सैनिकों का हुजूम जुटाने का बेहद मुश्किल काम के. आसिफ ने उस समय किया था। युद्ध के इन दृश्यों को फ़िल्माने के लिए करीब १६ कैमरों का इस्तेमाल किया गया।
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फिल्म के सबसे मशहूर गाने ‘जब प्यार किया तो डरना क्या’ की शूटिंग के लिए उस समय १० लाख रुपये खर्च किये गए थे। उस वक्त इतनी कीमत पर दो फिल्में बनकर तैयार हो जाती थी। बता दें कि इस गाने उस समय स्टूडियों में नहीं बल्कि स्टूडियों के बाथरूम में रिकॉर्ड किया था। इस गाने के सेट का निर्माण लाहौर फोर्ट के ‘शीशमहल’ जैसा किया गया था। लंबाई में १५० फ़ीट, चौड़ाई ८० फ़ीट और ३५ ऊंचाई वाले इस सेट को बनाने के लिए जिन शीशों का इस्तेमाल किया गया था वो ‘बेल्जियम’ से मंगवाए गए थे। इस सेट को तैयार में करीब २ साल का वक्त लग गया था।
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‘अनारकली’ के किरदार को बुलंद करने के लिए के. आसिफ साहब ने इस फिल्म के लिए २० गाने रिकॉर्ड कराये थे। इनमें से ज्यादातर गाने शूट भी कर लिए गए थे, लेकिन फिल्म की लंबाई बढ़ जाने की वजह से इस फिल्म में केवल १२ गाने ही डाले गए थे।
किसी शीशे की तरह जिगर में उतरने वाले फिल्म के डॉयलोग्स को के. आसिफ शाहब ने उस दौर के चार मशहूर लोगों से लिखवाये थे। इनमें कमाल अमरोही, अमानुल्लाह खान (अभिनेत्री जीनत अमान के पिता), वजाहत मिर्ज़ा और एहसान रिज़वी जैसे मुग़ल इतिहास की भाषा जानने वाले जाकर शामिल थे।

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आखिरकार फिल्म बनकर तैयार हुई और इसे ५ अगस्त १९६० को रिलीज़ की गयी। मुंबई के ‘मराठा मंदिर’ में इस फिल्म का प्रीमियर रखा गया था और इस थिएटर को एक मुग़ल महल की तरह सजाया गया था। फिल्म की रिलीज़ के एक दिन पहले जब एडवांस टिकट बुकिंग के लिए थिएटर खुला तो थिएटर के बाहर करीब १ लाख से भी ज्यादा लोग टिकट खरीदने के लिए थिएटर के बाहर इकठ्ठा हुए थे। उस समय किसी फिल्म के टिकट की कीमत डेढ़ रुपये हुआ करती थी वहीं इस फिल्म की टिकट की कीमत १०० रुपये थी। मराठा मंदिर में यह फिल्म करीब ३ साल तक चली थी, जो बॉलीवुड में सबसे ज्यादा दिनों तक एक ही थिएटर में चलने का पहला रिकॉर्ड था।
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के. आसिफ ने इस फिल्म की शूटिंग के दौरान तीन-तीन शादियां भी की। उन्होंने अपनी पहली शादी फिल्म के अभिनेता दिलीप कुमार की बहन अख्तर बेगम से की थी, जिसकी वजह से दिलीप कुमार इनसे काफी नाराज़ भी थे। इनकी दूसरी शादी सितारा देवी से और तीसरी शादी निगार सुल्ताना से हुई थी। अपने पूरे जीवन में के. आसिफ ने केवल दो फ़िल्में निर्देशन में पूरी की जिसमें से ‘मुग़ल-ए-आजम’ फिल्म बनाने का उनका सपना उन्होंने साकार किया और यह फिल्म बॉलीवुड की सबसे यादगार फिल्म बन गयी।
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फिल्म ‘मुग़ल-ए-आजम’ के बाद के. आसिफ ने साल १९६३ में अभिनेता गुरुदत्त को लेकर ‘लव एंड गॉड’ फिल्म बनानी शुरू की, मगर गुरुदत्त के निधन के बाद फिल्म की शूटिंग रुक गयी, बाद में उन्होंने संजीव कुमार को फिल्म में बतौर अभिनेता लेकर फिल्म पूरी करनी चाही। फिल्म की अभी १० रील की ही शूटिंग पूरी हुई थी कि के. आसिफ साहब का ९ मार्च १९७१ के दिन दिल का दौरा पड़ने से देहांत हो गया। इसके बाद निर्देशक के. सी. बोकाडिया ने इस फिल्म को पूरा किया। साल १९६३ में शुरू हुई फिल्म ‘लव एंड गॉड’ को पूरा होने में २३ साल का वक्त लग गया जिसे साल १९८६ में रिलीज़ किया गया था।
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‘ना पूछिए कहां-कहां खुदा का घर बना गया, जहां वो याद आया वहीँ पर सर झुका दिया, मैं खाली हाथ आया और खाली हाथ चल दिया, किसी से मैंने क्या दिया और किसी से मैंने क्या लिया’, ये के. आसिफ साहब थे।

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